क्यों नहीं होता ₹1 डॉलर के बराबर? रुपये का डॉलर के मुकाबले ऐतिहासिक गिरावट और इसकी पूरी कहानी

आजकल हर कोई यही पूछता है: भाई, ये रुपया और डॉलर बराबर क्यों नहीं हो जाते? जब भी खबरें देखते हैं, यही सुनाई देता है कि रुपया डॉलर के मुकाबले गिरता जा रहा है। रुपया लगातार कमजोर होता जा रहा है। अब लोग यह सोचते हैं कि क्या कभी ये दोनों बराबर होंगे?
ये सुनकर अच्छा नहीं लगता कि हमारा रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर है। लेकिन क्या सच में ऐसा हो सकता है कि ये दोनों बराबर हो जाएं? और सरकार इस बारे में कुछ क्यों नहीं कर रही है?
चलो, इसे आसानी से समझते हैं। जैसे 1 किलो चावल और 1 किलो गेहूं का वजन बराबर होता है, क्या उनकी कीमत भी बराबर होती है? रुपया और डॉलर में भी सिर्फ संख्या का खेल नहीं है।
कितना अच्छा होगा अगर रुपया और डॉलर बराबर हो जाएं! सोचो, iPhone 7 और भी सस्ते हो जाएंगे। Lamborghini खरीदना भी आसान हो जाएगा। दिमाग में नई ख्वाब सजने लगते हैं।
अब एक मजेदार सोच। मान लो, मैं कह दूं, आज 15 फरवरी से 12 बजे से ₹1 डॉलर के बराबर होगा! कितना मजेदार लगेगा, है ना?
लेकिन असलियत तो कुछ और है।
जितना आसान इसे कहना है, उतना आसान इसे करना नहीं है। अगर ऐसा आसानी से हो जाता, तो बात ही क्या थी! 10 साल पहले देश के प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि रुपया इतनी तेज़ी से गिर नहीं सकता। लेकिन फिर भी, आज हम देख रहे हैं कि रुपया लगातार कमजोर हो रहा है।
क्या रुपया गिर रहा है या डॉलर मजबूत हो रहा है?
हमारी फाइनेंस मिनिस्टर ने कहा कि “रुपया गिरा नहीं, बल्कि डॉलर मजबूत हुआ है।” इसका क्या मतलब है? और क्या विपक्ष के आरोप सही हैं? चलिए, इन सवालों का जवाब ढूंढते हैं। पहले हम रुपयों के इतिहास पर नजर डालते हैं।
क्यों जरूरी थी मुद्रा?
पहले लोग सामान का आदान-प्रदान करते थे। मतलब, अगर मुझे अनाज चाहिए और आपके पास सब्जी है, तो हम एक-दूसरे से बदल लेते थे। लेकिन यह हमेशा आसान नहीं था। अगर मेरे पास पेन है और मुझे आलू चाहिए, तो जरूरी नहीं कि आपको पेन चाहिए।
इस व्यवस्था में कई दिक्कतें थीं। यह ठीक से काम नहीं करती थी। यह भी नहीं पता चलता था कि किस सामान की कितनी कीमत है। जैसे, 1 किलो घी और 10 किलो आलू की बराबरी कैसे करें?
सिक्कों का आगमन
इन दिक्कतों के कारण, सिक्कों का इस्तेमाल होने लगा। भारत में सिक्कों का इतिहास काफी पुराना है। रुपया शब्द संस्कृत से आया है। शेरशाह सूरी ने इसे आधिकारिक बनाया। मुगलों ने भी इसे आगे बढ़ाया और दूर-दूर तक इस्तेमाल कराया।
व्यापार में रुपया
मुगल काल में, व्यापारी मुगल सिक्कों पर भरोसा करते थे। सोने और चांदी के सिक्के व्यापार के लिए बहुत अच्छे थे।
आजकल का व्यापार
अब सब कुछ ऑनलाइन हो गया है। अगर आप अपना ऑनलाइन व्यापार शुरू करना चाहते हैं, तो ओडू (Odoo) आपकी मदद कर सकता है। इसमें आप कस्टमर मैनेजमेंट, इनवॉइस भेजना, इन्बेंटरी और स्टॉक मैनेजमेंट कर सकते हैं। ओडू का बेसिक इस्तेमाल लाइफटाइम फ्री है। अगर बिजनेस बढ़ता है, तो आप किफायती पेड प्लान ले सकते हैं।
अकबर और रुपया
अकबर के समय में पहली बार भारतीय मुद्रा पर रुपया शब्द आया।
विदेशी व्यापार
भारत में व्यापार करने के लिए कई यूरोपीय कंपनियों को अपने चांदी के सिक्कों को एक ऐसी मुद्रा में बदलना पड़ा जो हर जगह चले। 17वीं और 18वीं शताब्दी में, इन कंपनियों ने मुगल रुपये को ट्रेडिंग कॉइन बना दिया और इसे श्रीलंका और इंडोनेशिया भेजा।
उपनिवेशवाद और रुपये का प्रसार
19वीं शताब्दी में, यूरोपीय देशों ने अपने उपनिवेशों में अपनी करेंसी शुरू की। लेकिन, पूर्वी अफ्रीका के तट पर रुपया पहले से ही एक बड़ी व्यापारिक मुद्रा थी। इसलिए, जर्मन और ब्रिटिश पूर्वी अफ्रीका, इतालवी सोमालीलैंड और पुर्तगाली मोज़ाम्बिक ने भी रुपये को जारी करना शुरू किया।
ब्रिटेन ने खाड़ी देशों जैसे कुवैत, बहरीन, कतर, UAE और ओमान के शेखों को रुपये को कानूनी मुद्रा बनाने की अनुमति दी। RBI ने इन देशों के लिए एक खास नोट्स की सीरिज भी छापी थी।
लेकिन, रुपया एक वक्त पर वैश्विक मुद्रा कैसे बना और फिर अचानक वो क्यों गायब हो गया? डॉलर कैसे इतना महत्वपूर्ण हो गया?
आजादी से पहले, भारत ब्रिटिश कॉलोनी था, इसलिए रुपया ब्रिटिश अर्थव्यवस्था से जुड़ा था। ब्रिटिश पाउंड को डॉलर में फिक्स रेट पर बदला जा सकता था। अमेरिकी डॉलर सोने के साथ जुड़ा था, यानी आपको डॉलर के बदले सोना मिलता था।
1930 के दशक में महामंदी आई और हर जगह की इकोनॉमी बिखर गई। भारत ने भी इसे झेला। उपनिवेश होने से भारत को दोहरी मार पड़ी: एक ओर द्वितीय विश्व युद्ध और दूसरी तरफ हर तरफ आर्थिक संकट।
फिर 1944 में ब्रेटन वुड्स सम्मेलन हुआ। उस समय, अमेरिका सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया था। अमेरिका ने डॉलर को सबसे भरोसेमंद मुद्रा मान लिया। ब्रिटिश पाउंड भी डॉलर से जुड़ गया।
इस तरह, भारत की मुद्रा ब्रिटिश पाउंड से होते हुए डॉलर से जुड़ गई। 1947 में, 1 पाउंड 1.37 डॉलर के बराबर था और 1 डॉलर 4.16 रुपये का था। पाउंड डॉलर से महंगा था, लेकिन रुपये की कीमत 4.16 रुपये थी।
लेकिन देश अपनी मुद्रा की वैल्यू क्यों गिराते हैं? यह पता करना जरूरी है कि एक डॉलर कितने रुपये का होगा। दुनिया में 193 देश हैं और हर किसी की अपनी करेंसी है। यह समझना जरूरी है कि रुपये कितने मजबूत होंगे।
विनिमय दर (Exchange Rate)
डॉलर को रुपये में बदलने की दर को विनिमय दर कहते हैं। दुनिया में विनिमय दर तीन तरह की होती है:
- फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट (Floating Exchange Rate): बाजार की शक्तियों (मांग और आपूर्ति) द्वारा निर्धारित होती है।
- फिक्स्ड एक्सचेंज रेट (Fixed Exchange Rate): सरकार द्वारा निर्धारित होती है।
- मैनेज्ड एक्सचेंज रेट (Managed Exchange Rate): फ्लोटिंग और फिक्स्ड का मिश्रण।
रुपया डॉलर के बराबर क्यों नहीं है – एक उदाहरण
मान लीजिए, दो देश हैं: X और Y। दोनों को शुरुआत में ₹100 दिए गए।
- देश X: ₹100 में 100 आम के पौधे लगाए। आमों को बेचकर खाकर सुख लेने लगे।
- देश Y: ₹100 में 100 आम के पौधे लगाए। फिर आम की गुठलियों से और पौधे लगाए। फिर आमों से रस, अचार, पना आदि बनाना शुरू कर दिया।
देश Y ने ₹100 से बहुत सारा सामान बना लिया, जबकि देश X के पास सिर्फ 100 आम के पेड़ ही रह गए। देश Y एक बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया।
इसका मतलब है कि मुद्रा की वैल्यू उस देश में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की वैल्यू पर निर्भर करती है। अगर भारत में ₹1 लाख में जितना सामान खरीदा जा सकता है, उससे ज़्यादा सामान अमेरिका में $1 लाख में खरीदा जा सकता है, तो रुपये और डॉलर की वैल्यू में अंतर होगा।
फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट और रुपये की गिरावट
आज रुपये की वैल्यू एक डॉलर के मुकाबले गिर रही है। इसका मतलब है, डॉलर मजबूत हो रहा है। लोग अब डॉलर पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं। अमेरिका की अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है। इसलिए, डॉलर की मांग बढ़ रही है। इसे फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट कहते हैं।
फिक्स्ड एक्सचेंज रेट
फिक्स्ड एक्सचेंज रेट में, देश खुद से यह तय करता है कि उनकी मुद्रा की वैल्यू क्या होगी। जैसे, बहरीन, हांगकांग, इराक और सऊदी अरब ने इसे अपनाया है। लेकिन, ऐसा करने पर विदेशी निवेश नहीं आता। निवेशक उन देशों में जाना पसंद करते हैं, जहां मुद्रा की वैल्यू बाजार के हिसाब से तय होती है।
भारत और रुपये का अवमूल्यन
भारत ने कई बार रुपये की वैल्यू को बदला है। 1949, 1966 और 1991 में रुपये का अवमूल्यन हुआ। ऐसा इसलिए किया गया ताकि डॉलर वाले लोग यह सोचें कि भारत में निवेश करना सस्ता है।
डॉलर की जरूरत क्यों?
हमें डॉलर की जरूरत क्यों है? क्योंकि दुनिया में डॉलर चलता है। आप रुपये से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में पेमेंट नहीं कर सकते। दूसरे देश रुपये नहीं लेते।
उदाहरण के लिए, अगर भारत सऊदी अरब से तेल खरीदता है और रुपये में पेमेंट करना चाहता है, तो सऊदी अरब रुपये नहीं लेगा। उसे डॉलर चाहिए। डॉलर से वह दुनिया में सामान खरीद सकता है।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ताकत
अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। उसकी अर्थव्यवस्था लगभग 29 ट्रिलियन डॉलर की है। भारत की अर्थव्यवस्था केवल 3.5 ट्रिलियन डॉलर की है। अमेरिका एक विकसित देश है और वहां की प्रति व्यक्ति आय भारत से ज्यादा है। इसलिए, डॉलर की मांग ज्यादा है।
डॉलर कैसे कमाएं?
डॉलर कमाने के लिए, भारत को अमेरिका को सामान और सेवाएं बेचनी होंगी। भारत अमेरिका को सस्ती लेबर देता है और बदले में डॉलर कमाता है।
भारत विदेशी निवेश भी आकर्षित करता है। जब कंपनियां भारत में निवेश करती हैं, तो वे डॉलर लाती हैं। इस तरह, भारत डॉलर लाता है और रुपये को कमजोर रखता है।
रुपये का कमजोर होना
1947 में, 1 डॉलर 3.30 रुपये था। आज यह 87 रुपये से अधिक हो गया है। रुपये की गिरावट कई कारणों से होती है, जैसे आर्थिक नीतियां और वैश्विक बाजार।
डॉलर का प्रभाव
अमेरिकी बाजार स्थिर है और उनकी अर्थव्यवस्था मजबूत है। अमेरिका की फेडरल रिजर्व की नीतियां भी डॉलर को प्रभावित करती हैं। ब्याज दर बढ़ाना या घटाना डॉलर की वैल्यू पर असर डालता है।
क्या होगा अगर हम सिर्फ रुपये पर निर्भर रहें?
अगर भारत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में डॉलर का इस्तेमाल बंद कर दे और सिर्फ रुपये पर निर्भर रहे, तो भारत को गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई का सामना करना पड़ेगा। बड़ी कंपनियां बाहर चली जाएंगी और भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर हो जाएगी।
निष्कर्ष
रुपये का डॉलर के मुकाबले कमजोर होना एक पेचीदा मुद्दा है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, आर्थिक नीतियां और बाजार की स्थितियां सभी मुद्रा की वैल्यू को प्रभावित करती हैं। डॉलर की ताकत और अमेरिकी अर्थव्यवस्था रुपये की वैल्यू को कमजोर बनाती है।